कोरोना कविता
सुबह बन तो रही है दोपहर
और दोपहर बन रही है शाम
जो जल्द पड़ जाती है स्याह कुछ ही घंटों में
और रात आ खड़ी होती हैं जहाँ थी शाम
और फिर एक जादूई अन्दाज़ से
रात फिर बन रही है सुबह
दिन रहें हैं बीत पर समय रुक गया है सबके लिए
सांसें तो चल रहीं हैं पर ज़िंदगी थम गई है सबके लिए
हमारा समय चुरा लिया है किसी ने हमसे
हमारी ज़िंदगी छीन के ले गया है कोई हमसे
रेडीओ पर बज रहे हैं गाने नए पुराने
पर कानों को पड़ती हैं सुनाई बस एक धुन
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
वंदना सिंह
१६ मार्च, नई दिल्ली